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कविता

कहा-सुनी : या इलाही से मुखातिब

बाबुषा कोहली


[ पंजा लड़ाओगे , ईश्वर ?]

एक कविता आई और कर गई मेरी हत्या
लहूलुहान देह पीछे छोड़ आत्मा आसमान तक जा पहुँची
सकपकाया सूरज अँधेरे द्वार से बाहर दौड़ा आया

आत्मा का अट्टहास ब्रह्मांड की छाती भेद सकता है
तड़ीपार प्लूटो में भी चहचहा उठी है गौरैया
कोई जमींदार नहीं है सूरज
जिसकी दादागिरी मेरी सुबह को रोक सके

वो घावों से बने द्वार थे
जिन्हें तोड़ कर आत्मा जा बैठी है फिर से भीतर
लहू कागज की सफेदी पर जा सूखा

मैंने जीवन से प्रार्थना की कि वह कटे
जीवन मुझे काटता चलता है कई हिस्सों में

सबक मेरे लिए यह कि
कि मंदिर की घंटियों को धीरे बजाया जाए
ताकि ईश्वर को मेरी बात साफ साफ सुनाई दे

और ईश्वर !
सबक तेरे लिए यह कि तू जितने द्वारों के पीछे छुपा हुआ हो
मेरी आत्मा के अट्टहास से बचना


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